Tuesday, November 9, 2010

मैं बहुत बोलती हूँ (लम्हें बचपन के... नन्हीं कलम से )



मैं बहुत ज़्यादा और जल्दी बोलती हूं
बे सिर पैर और बिना ब्रेक बोलती हूं

मेरी बातें सुन सुन कर हैं हैरान
सारे घर वाले मुझ से है परेशान

कई बातें तो होती है लाजवाब
नहीं सुझता उन्हें कुछ भी जवाब

बहुत ज़्यादा बोलती हूं इसीलिये
सभी की बातें काट देती हूं

छोटी हूं,
जल भुन कर हर कोई झिडक देता है
मेरी हर बात पर डांट देता है

बोलने में बसती है मेरी जान
क्यों है घर वाले इस से परेशान

नहिं मुझे पिक्चर का शौक,
और नहिं घूमने- फ़िरने का शौक

बस अलबेला यही एक शौक
क्यों लगाते सब इस पर रोक

बडे किये सबने उपचार
पर
मेरा हुआ न तनिक सुधार

एक बात मम्मी डैडी की मैने जानी
मेरे बोलने के उन्हें है एक परेशानी

उन दोनों को है बडा ही डर
कहां मिलेगा मुझे अच्छा वर?

पर मै भी कुछ कम नहीं हूं
हर बात की तैयारी कर रही हूं

शादी के लिये एक विग्यापन लिख रही हूं
................................................

"आवश्यक्ता है एक ऐसे वर की
जो बहरा होते हुये भी सुनने का शौक रखता हो
क्यों कि लड्की की ज़ुबान में इम्पोर्टिट पार्ट्स लगें हैं."

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