Monday, November 8, 2010

यादों का सैलाब



सर्द रातों में
ठिठुरते हुये
जब
तानी तुम्हारी यादों कि चादर
तब
तपती आग सी गर्माहट
जला गई जिसम को मेरे
अब
न उस चादर को
ओढे बनता है. न उंघाढे
 और
जिस्म का एक एक रोयां
बहने लगा है,
तुम्हारी यादों का सैलाब बन के...

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