Tuesday, November 23, 2010

याद


ज़िन्दगी में उदासी हर ओर सिमट आई है
मन के आकाश में दुखों कि घटा छाई है

ऐसे में तेरी याद है कि बिजली तड़प.

या फिर सो कर जागते दर्द की अंगड़ाई है

रात सोती है चुप.. जागते हैं सितारे लेकिन

कोई  जाने न  तड़पते हैं दिल के मारे लेकिन..

अरमान सूख चुके हैं,बाकि उमंगें भी नही 


सभी के दर्द को अपना लिये लेती हूं

प्यार के नाम पे ये ज़हर पीये लेती हूं

जलाए देती हूं बाकि सब रोशनी के लिये

बहार आये तो कांटों में जीये लेती हूं

Friday, November 12, 2010

बेदाग चाँद (लम्हें बचपन के,नन्हीं कलम से-आपने भाई शशी रंजन को, जबसे होश सम्भाला उसे हज़ारों मील दूर मुम्बई मे पाया )





हाँ ये चाँद बेदाग है
जिस से हम सबको अनुराग है

पर ये चाँद तो धरती पर है
फिर भी हुम सब से दूर है

बादलों में छिपे उस चाँद जैसा लगता है
जो कुछ क्षण दिख कर फिर छिप जाता है

पर कभी तो ये बादल छटेंगे
फिर हम जी भर कर देख लेंगे

ये हँसता बोलता चाँद,है हम सबकी जान
हमें है इस पर बडा ही मान

है तो ये बडा ही जीनियस

पर रहता है हरदम सीरियस
कर देता है हम सबको नीरस

इसका रहस्य है बडा ही गूढ
पल पल मै बदलता है इसका मूड

कभी लगता है खोया खोया
और लगता है सोया सोया

बेबात मुस्कुरा देता है
हम उदासों को हँसा देता है

पर हम जानते हैं

ये फिर धोखा दे जायेगा
दूर बदलों में खो जायेगा

सब खुशीयाँ साथ ले जायेगा
एक मीठी याद दे जायेगा

पर कभी तो ये बादल छटेंगे
फिर हम जी भर कर देख लेंगे

Tuesday, November 9, 2010

मैं बहुत बोलती हूँ (लम्हें बचपन के... नन्हीं कलम से )



मैं बहुत ज़्यादा और जल्दी बोलती हूं
बे सिर पैर और बिना ब्रेक बोलती हूं

मेरी बातें सुन सुन कर हैं हैरान
सारे घर वाले मुझ से है परेशान

कई बातें तो होती है लाजवाब
नहीं सुझता उन्हें कुछ भी जवाब

बहुत ज़्यादा बोलती हूं इसीलिये
सभी की बातें काट देती हूं

छोटी हूं,
जल भुन कर हर कोई झिडक देता है
मेरी हर बात पर डांट देता है

बोलने में बसती है मेरी जान
क्यों है घर वाले इस से परेशान

नहिं मुझे पिक्चर का शौक,
और नहिं घूमने- फ़िरने का शौक

बस अलबेला यही एक शौक
क्यों लगाते सब इस पर रोक

बडे किये सबने उपचार
पर
मेरा हुआ न तनिक सुधार

एक बात मम्मी डैडी की मैने जानी
मेरे बोलने के उन्हें है एक परेशानी

उन दोनों को है बडा ही डर
कहां मिलेगा मुझे अच्छा वर?

पर मै भी कुछ कम नहीं हूं
हर बात की तैयारी कर रही हूं

शादी के लिये एक विग्यापन लिख रही हूं
................................................

"आवश्यक्ता है एक ऐसे वर की
जो बहरा होते हुये भी सुनने का शौक रखता हो
क्यों कि लड्की की ज़ुबान में इम्पोर्टिट पार्ट्स लगें हैं."

तीसरा महायुद्ध ( लम्हें बचपन के... नन्हीं कलम से )

तीसरा महायुद्ध
जी हाँ तीसरा महायुद्ध

पर ये वो  महायुद्ध नहीं  
जिसके बारे में आप सोच रहे हैं

ये महायुद्ध है मेरे घर का
मेरे मम्मी-डैडी के बीच का

कल रात हुआ झगड़ा 
मेरे मम्मी-डैडी के बीच

और बन गया हम
आधा दर्ज़न बच्चों का सैंडविच 

मम्मी -डैडी अपने कमरे में झगड़  रहे थे
और हम सभी बच्चे कोने में दुबके पड़े  थे

सोचा था आज अंग्रेज़ी का कुछ याद कर लेंगे
कल क्लास में जा कर रोब मार लेंगे

पर क्या सोचा था
मम्मी-डैडी ये रंग दिखा देंगे?

झगडा बढ्ता ही जा रहा था
कई रंग बदलता ही जा रहा था

डर से हमारे चेहरे के भी रंग बदल रहे थे
मम्मी डैडी थे कि रुकने का नाम ही नहीं  ले रहे थे

मम्मी मायके जाने की धमकी दे रही थी
पहले तीन को साथ ले जाने को कह रही थी

कह रही थी, न रखूंगी यहाँ कभी कदम
न खा लोगे जब तक, न लड़ ने की कसम

छै बच्चों की पार्टी दो जगह बँट गयी
आधे मम्मी की तरफ़ और आधे डैडी की तरफ़

मम्मी का पलड़ा  भारी था
पर पापा का गुस्सा भी जारी था

मैं क्योंकि पिछ्ले तीन में थी
इसलिये पापा की टीम में थी

सिचुएशन भारत- ऒस्ट्रेलिया के क्रिकेट मैच की सी थी
ज़ाहिर है, हमारी हालत भारतीय टीम की सी थी.

हमारी सभी बातें तो विकटों की तरह उड़ती जा रही थी
और मम्मी थी कि चौके व छ्क्के मारे जा रही थी

हमारे जीतने की बात तो दूर
यहाँ तो ड्रा करना भी मुश्किल था

मम्मी अपनी बात पर अड़ी  थी
अटैची लिये तैयार खडी थी

हम तीनों का पापा सहित पलडा हल्का था
सभी को मम्मी के चले जाने का खटका था

बस सिर झुकाए खड़े  थे
तोड़ी  गई प्लेटों का हिसाब कर रहे थे

आखिर ये नुक्सान हमें ही तो भुगतना था
हर महीने के जेब खर्च से चौथाई भरना था

मम्मी चीखती जा रही थी
सारे घर को सिर पर उठा रही थी

मम्मी द्वारा वो धाकड डायलाग बोले जा रहे थे
जो हेमा, और रेखा को भी मात कर रहे थे

पापा की बातें तो संक्षिप्त सी थी
सिचुएशन फ़िल्म के एक्स्ट्रा की सी थी

पर हम सोच रहे थे कि ये महायुद्ध रोका कैसे जाये
मम्मी का पारा नीचे कैसे गिरया जाये

अन्त में फ़ैसला खूब किया गया
मम्मी को मैन ओफ़ द मैच घोषित किया गया
और पापा... पापा .. बिचारो की हालत तो क्रिकेट के १२ वे खिलाड़ी की सी थी

आँसू





न कहो आँसू इन्हें
ये वो मोती है

जो बिखरते रहे हैं
हर पल, हर घडी

हर सुख हर दुख में
अनुभवों का खज़ाना ले कर

Monday, November 8, 2010

यादों का सैलाब



सर्द रातों में
ठिठुरते हुये
जब
तानी तुम्हारी यादों कि चादर
तब
तपती आग सी गर्माहट
जला गई जिसम को मेरे
अब
न उस चादर को
ओढे बनता है. न उंघाढे
 और
जिस्म का एक एक रोयां
बहने लगा है,
तुम्हारी यादों का सैलाब बन के...

ख़ूबसूरत ग़लतफ़हमी



यूं ही राह चलते,
कभी बात करते,
आपका हाथ मेरे हाथों में आया,
तो ऐसा लगा,
इस अजनबी शहर में भी कोई अपना है.
जानती हूँ मेरी ख़ूबसूरत ग़लतफ़हमी की ख़बर पा कर आप...
ज़रा सा मुस्कुराऐंगे...
आँखों में, शैतानी भरा अन्दाज़ लिये..

एक ख़त



खत लिखेंगे आपको, आप से वायदा था मगर
वायदे पर अमल करना नामुमकिन सा लगने लगा है

जब भी कलम उठाई,आपको लिखें....
आपका चेहरा आँखों के सामने कुछ इस कदर छा गया,
कि लिखना भूल गये है हम

आँखों में रहने वाले की दूरी का अहसास नहीं होता,
जब आप साथ है हमेशा, तो खत कब, किसे और कैसे लिखें?


तुम्हारी आंखें



तुम्हारी दो आंखें न जाने क्या ढूंढते-ढूंढते,
मुझ पर आ कर ठहर गई.

और वोह पल, वोह इक पल,
इक युग बन कर, एक बुत के जैसे वहीं ठहर गया

तुमने जाना कि न जाना,समझा कि न समझा

ये तुम्हीं जानो, तुम्हीं समझो
पर मेरे लिये तो वो इक पल
,ख़्वाब बन कर मेरी पलकों के बीच ठहर गया है.

स्मृति



स्मृतियों के स्पर्श कि सुखद गर्माहट में लिपटे,
हम लेटा किये देर तक,
तुमको सोचते हुये.

एकान्त क्यों इताना प्रिय है मुझे...?
उन नितान्त ऐकाकी क्षणों में ,
तुम्हारा साथ जो सहज ही मिल जाता है मुझे..

एक सपना




हाँ कल ही तो देखा था वोह सपना,
पंख लगा कर उड रही थी जहाँ कल्पानाऐं मेरी.

पर आज ही क्यों टूट गया वोह सपना,
इस निरीह दुनियाँ में, एक वही तो था अपना.

अगर न टूटता , न बिखरता
तो सपना क्यों कहलाता,
अपना न कहलाता.

रोज़ बनता है, रोज़ संवरता है
क्या पल भर में बिखर जाने को?
क्यों नीयति है इसकी केवल टूट जाना ही?

यदि अस्तित्व है इसका बनना
और बन कर बिखर जाना
तो मिटा ही क्यों न दे अपने अस्तित्व को.
जो स्वयं अपने आप में तो एक व्यथा है ही,
दूसरो’ को भी कर जाता है व्यथित.
जो अपनी ही तरह उन्हें बनाता है, संवारता है
और फिर तोड़  कर देता है बखेर...