Friday, April 10, 2020

AHSAAS Poem by Dr. Madhvi Mohindra

                  

                                        
                            कभी सोचा न था कि
वक्त इतना वक्त दे देगा
इस वक्त को यू बिताने के लिये

आज जब वक्त मिला तो
मुड कर देखा उस वक्त को
जब वक्त नही   था
आज के इस वक्त को जानने का

कभी जिन्दगी के पीछे भागते
कभी जिन्दगी के साथ भागते

वक्त कैसे हाथ से फिसल गया
ये सोचने का वक्त ही नही  मिला

आज जब वक्त मिला तो
मुड कर देखा उस वक्त को
जब वक्त नहीं था
आज के इस वक्त को जानने का

आज यूहीं  वक्त बिताने को
खोल बै्ठी परछत्ती पर रखी
पुरानी अटैची , बयान करती वक्त की कहानी

टूटा ताला, उखडा हैन्डल , उधडी बखिया
मेरी ही तरह घूम कर पूरी दुनिया
व्यक्त करती बीते वक्त की कहानियां

मै, जो हर वक्त, वक्त के साथ चलती रही
डिजाइनर बैग्स और सूट्केस खरीदती रही
इस पुरानी अटैची को बदलने का वक्त ही नहीं  मिला

आज जब वक्त मिला तो
मुड कर देखा उस वक्त को
जब वक्त नहि था
आज के इस वक्त को जानने के लिये

सलीके से उन कपडो को ढापता , मेरा सूती दुपट्टा
कपडो से आती वोह पह्चनी सी सुगन्ध

माँ की दी हुई वो  रेश्मी बूटो वाली साडी
पापा कि दिलवाई हुई वोह घुंघरू  वाली पायल

दहेज के बर्तनो के साथ मिली वो केतली की टिकोजी
कढाई किये वो लेस वाले रुमाल,

और मेरे आज के वक्त का उपहास उडाते
लिफाफे मे लिपटे , बीते वक्त के कुछ खत

बीते वक्त की वो साडी  , और आज के आधुनिक परीधान
वो चान्दी की पायजेब और ये सर्वोस्कि के ढेर

वो हाथ के कढे रुमाल,
और ये टिशु पपेर्स का अम्बार


आज इस थोडे से वक्त में
मेरे बीते वक्त ने,
आज के वक्त को निष्फल कर दिया।

आज तक यही सुना था


वक्त कभी रुकता नहि
वक्त के साथ चलो
मेर वक्त भी अयेगा
बुरा वक्त चला जायेगा

आज वक्त मिला तो जाना,
वक्त तो वहीं  है जहा था
ये तो मै ही थी
ये तो मै ही थी , जो दौडती रही रेगिस्तान की मरिचिका के पीछे

आज वक्त मिला तो जाना
क्या इसी का नाम है पाना?

जब हाथ मे है आना
पर बाजार मे नहीं है दाना

परिवार के लिये नहीं   था वक्त
और दोस्त बनाये अन्गिनत

आज वक्त मिला तो जाना

कि आज तक तो सिर्फ आलिशान मकान बनाये थे
वो घर तो आज बने है

जहा मुझ से  हाथ मिलाते डरने वाले लोग नहीं
मेरे अपने है

आज वक्त मिला तो
ढूढा बीते दिनो का खजाना

और फिर जाना कि
ये रोना, ये रुलाना,
यू उलझना , यू उलझाना
ये आलोचना ये उल्हाना

सब छोड दो ना
और जो मैने किया

ये पढना य़े लिखना
यू हंसना , यू मुस्कुरान

ये सा
धना ये अराधना
ये समझना, ये समझाना

ये धोना ये पोछना
वो तुम भी करो ना

"Delhi Dehali " By Dr. Madhvi Mohindra



                                                  

मेरी दिल्ली के जवां सीने पर
तारीखी मीनारों की कतारें थी रवां

खेंच दी किसने ये एक और नफरत ए मीनार
उन दिलों और मीनारों के मयां

किसने फूलों से कहा तुम न बहारों से मिलो
किसने कलियों से तबस्सुम का चलन छीन लिया

किसकी बेरहम सियासत ने उठा कर खंजर
दिलवालों की दिल्ली का जिगर चीर दिया

कितनी हसरत से इंडिया गेट की दीवारें तकती  हैं
कितने पृथ्वीराज और विक्रमादित्य का बलिदान छिपा था इसमें

ग़ालिब की ग़ज़ल और गंगा ए जमुनी तज़ीब की कसम
कितने फनकारों का इश्क ए बयान छिपा था इसमें

कितने चिराग थे जो बेनूर घरोंदों में जले
कितने ज़र्रे थे , जो तारों से हमआगोश हुए

                                           कितनो के तस्सबुर का ख्वाब है                                                                                                                                                                वो
ग़ालिब की गालिया और चांदनी चौक की बत्तियां

पर यह जंतर - मंतर , लाल किला और यह निशान ए मंज़िल
अपनी उस ज़द  ज़हद की मिसाल तो नहीं

उफ़ यह मोमबत्तियों की कतारें , ये जनाज़ों का जुलूस
अपनी सदियों की ग़ुलामी की दवा तो नहीं ।