हाँ कल ही तो देखा था वोह सपना,
पंख लगा कर उड रही थी जहाँ कल्पानाऐं मेरी.
पर आज ही क्यों टूट गया वोह सपना,
इस निरीह दुनियाँ में, एक वही तो था अपना.
अगर न टूटता , न बिखरता
तो सपना क्यों कहलाता,
अपना न कहलाता.
रोज़ बनता है, रोज़ संवरता है
क्या पल भर में बिखर जाने को?
क्यों नीयति है इसकी केवल टूट जाना ही?
यदि अस्तित्व है इसका बनना
और बन कर बिखर जाना
तो मिटा ही क्यों न दे अपने अस्तित्व को.
जो स्वयं अपने आप में तो एक व्यथा है ही,
दूसरो’ को भी कर जाता है व्यथित.
जो अपनी ही तरह उन्हें बनाता है, संवारता है
और फिर तोड़ कर देता है बखेर...
No comments:
Post a Comment