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बस.. अब और नहीं

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टूटते ख़वाब , बिखरती ज़िन्दगी को समेटने की नाकाम कोशिश करती ज़िंदा लाशों की भीड़ को  चीरती थके कदम,  झुके से काँधे दिल पर हज़ारो बोझ हर वक्त मिलती एक अनजानी सी सज़ा भयानक हादसा लगती ये बेवजह ज़िन्दगी मौत से सिर्फ एक कदम फासले पर खड़ी मैं मुक्ति बंधन के कपोल- कल्पित बोध के रोमांचित क्षण से आलंगन को तत्पर मैं ठिठकी पल भर को , जब दस्तक देते सुना अवचेतन मन को . इस ज़िंदगी से बहुत मिला क्यों वही गिना , जो हासिल न हुआ वोह लोग जो मुझ सा दौड़ न सके , क्यों हिमाक़त हुई वोह मुझे तोड़ सके ? कितनी नादान थी कि गिरने के शोर से डरती रही और चुपके से भीतर ही भीतर से टूटती रही  . वक़्त मुझे तराशता रहा और मैं वक़्त की खरोंचों को ज़ख्म समझती रही नहीं जानती थी कि अक्सर बेआवाज़ रोने वाले बे वक़्त मर जाया करते हैं . बस... अब और नहीं अब न आंधी से न तूफ़ां से यूँ  डर  जाऊँगी बहती नदी हूँ , पहाड़ से गिरी तो समुन्द्र में समा जाउंगी उन्मुक्त बदली हूँ , यहाँ नहीं तो कहीं और बरस जाउंगी.