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बस.. अब और नहीं

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टूटते ख़वाब , बिखरती ज़िन्दगी को समेटने की नाकाम कोशिश करती ज़िंदा लाशों की भीड़ को  चीरती थके कदम,  झुके से काँधे दिल पर हज़ारो बोझ हर वक्त मिलती एक अनजानी सी सज़ा भयानक हादसा लगती ये बेवजह ज़िन्दगी मौत से सिर्फ एक कदम फासले पर खड़ी मैं मुक्ति बंधन के कपोल- कल्पित बोध के रोमांचित क्षण से आलंगन को तत्पर मैं ठिठकी पल भर को , जब दस्तक देते सुना अवचेतन मन को . इस ज़िंदगी से बहुत मिला क्यों वही गिना , जो हासिल न हुआ वोह लोग जो मुझ सा दौड़ न सके , क्यों हिमाक़त हुई वोह मुझे तोड़ सके ? कितनी नादान थी कि गिरने के शोर से डरती रही और चुपके से भीतर ही भीतर से टूटती रही  . वक़्त मुझे तराशता रहा और मैं वक़्त की खरोंचों को ज़ख्म समझती रही नहीं जानती थी कि अक्सर बेआवाज़ रोने वाले बे वक़्त मर जाया करते हैं . बस... अब और नहीं अब न आंधी से न तूफ़ां से यूँ  डर  जाऊँगी बहती नदी हूँ , पहाड़ से गिरी तो समुन्द्र में समा जाउंगी उन्मुक्त बदली हूँ , यहाँ नहीं तो कहीं और बरस जाउंगी.

AHSAAS Poem by Dr. Madhvi Mohindra

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                                                                                                             कभी सोचा न था कि वक्त इतना वक्त दे देगा इस वक्त को यू बिताने के लिये आज जब वक्त मिला तो मुड कर देखा उस वक्त को जब वक्त नही    था आज के इस वक्त को जानने का कभी जिन्दगी के पीछे भागते कभी जिन्दगी के साथ भागते वक्त कैसे हाथ से फिसल गया ये सोचने का वक्त ही नही   मिला आज जब वक्त मिला तो मुड कर देखा उस वक्त को जब वक्त नहीं था आज के इस वक्त को जानने का आज यूहीं   वक्त बिताने को खोल बै्ठी परछत्ती पर रखी पुरानी अटैची , बयान करती वक्त की कहानी टूटा ताला , उखडा हैन्डल , उधडी बखिया मेरी ही तरह घूम कर पूरी दुनिया व्यक्त करती बीते वक्त की कहान...

"Delhi Dehali " By Dr. Madhvi Mohindra

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                                                                    मेरी दिल्ली के जवां सीने पर तारीखी मीनारों की कतारें थी रवां खेंच दी किसने ये एक और नफरत ए मीनार उन दिलों और मीनारों के मयां किसने फूलों से कहा तुम न बहारों से मिलो किसने कलियों से तबस्सुम का चलन छीन लिया किसकी बेरहम सियासत ने उठा कर खंजर दिलवालों की दिल्ली का जिगर चीर दिया कितनी हसरत से इंडिया गेट की दीवारें तकती   हैं कितने पृथ्वीराज और विक्रमादित्य का बलिदान छिपा था इसमें ग़ालिब की ग़ज़ल और गंगा ए जमुनी तज़ीब की कसम कितने फनकारों का इश्क ए बयान छिपा था इसमें कितने चिराग थे जो बेनूर घरोंदों में जले कितने ज़र्रे थे , जो तारों से हमआगोश हुए                                              ...

मै निर्भया हूँ

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                            मै   निर्भया   हूँ. मैं ,   गुनहगार   हूँ  ! इसकी   ,  उसकी   ,  आपकी    सबकी  ! हाँ   ,  हाँ    मै   गुनहगार   हूँ   उस   माँ   की   , जिसकी   कोख   से   मैंने   जन्म   लिया मै   गुनहगार   हूँ   उस   पिता   की जिसकी   उंगली   पकड़   कर   चलना   सीखा गुनहगार   हूँ   उस   भाई   की जिसकी   कलाई   को   मैंने   सदा   के   लिए    सूना   छोड़   दिया   गुनहगार   हूँ   मै   उस   दोस्त   की जिसे   अपने   गुनाह   में   मैंने   भागिदार   कर   लिया पर   मैं    कहाँ   ऐसी   थी ?   मै   भी   तो   इसके ...