Wednesday, July 15, 2020

बस.. अब और नहीं




टूटते ख़वाब ,
बिखरती ज़िन्दगी को
समेटने की नाकाम कोशिश करती
ज़िंदा लाशों की भीड़ को  चीरती
थके कदम,  झुके से काँधे
दिल पर हज़ारो बोझ
हर वक्त मिलती एक अनजानी सी सज़ा
भयानक हादसा लगती ये बेवजह ज़िन्दगी
मौत से सिर्फ एक कदम फासले पर खड़ी मैं
मुक्ति बंधन के कपोल- कल्पित बोध
के रोमांचित क्षण से आलंगन को तत्पर मैं
ठिठकी पल भर को ,
जब दस्तक देते सुना
अवचेतन मन को .
इस ज़िंदगी से बहुत मिला
क्यों वही गिना , जो हासिल न हुआ
वोह लोग जो मुझ सा दौड़ न सके ,
क्यों हिमाक़त हुई वोह मुझे तोड़ सके ?
कितनी नादान थी कि गिरने के शोर से डरती रही
और चुपके से भीतर ही भीतर से टूटती रही  .
वक़्त मुझे तराशता रहा और मैं
वक़्त की खरोंचों को ज़ख्म समझती रही
नहीं जानती थी कि अक्सर बेआवाज़ रोने वाले
बे वक़्त मर जाया करते हैं .
बस... अब और नहीं
अब न आंधी से न तूफ़ां से यूँ  डर  जाऊँगी
बहती नदी हूँ , पहाड़ से गिरी तो समुन्द्र में समा जाउंगी
उन्मुक्त बदली हूँ , यहाँ नहीं तो कहीं और बरस जाउंगी.

Friday, April 10, 2020

AHSAAS Poem by Dr. Madhvi Mohindra

                  

                                        
                            कभी सोचा न था कि
वक्त इतना वक्त दे देगा
इस वक्त को यू बिताने के लिये

आज जब वक्त मिला तो
मुड कर देखा उस वक्त को
जब वक्त नही   था
आज के इस वक्त को जानने का

कभी जिन्दगी के पीछे भागते
कभी जिन्दगी के साथ भागते

वक्त कैसे हाथ से फिसल गया
ये सोचने का वक्त ही नही  मिला

आज जब वक्त मिला तो
मुड कर देखा उस वक्त को
जब वक्त नहीं था
आज के इस वक्त को जानने का

आज यूहीं  वक्त बिताने को
खोल बै्ठी परछत्ती पर रखी
पुरानी अटैची , बयान करती वक्त की कहानी

टूटा ताला, उखडा हैन्डल , उधडी बखिया
मेरी ही तरह घूम कर पूरी दुनिया
व्यक्त करती बीते वक्त की कहानियां

मै, जो हर वक्त, वक्त के साथ चलती रही
डिजाइनर बैग्स और सूट्केस खरीदती रही
इस पुरानी अटैची को बदलने का वक्त ही नहीं  मिला

आज जब वक्त मिला तो
मुड कर देखा उस वक्त को
जब वक्त नहि था
आज के इस वक्त को जानने के लिये

सलीके से उन कपडो को ढापता , मेरा सूती दुपट्टा
कपडो से आती वोह पह्चनी सी सुगन्ध

माँ की दी हुई वो  रेश्मी बूटो वाली साडी
पापा कि दिलवाई हुई वोह घुंघरू  वाली पायल

दहेज के बर्तनो के साथ मिली वो केतली की टिकोजी
कढाई किये वो लेस वाले रुमाल,

और मेरे आज के वक्त का उपहास उडाते
लिफाफे मे लिपटे , बीते वक्त के कुछ खत

बीते वक्त की वो साडी  , और आज के आधुनिक परीधान
वो चान्दी की पायजेब और ये सर्वोस्कि के ढेर

वो हाथ के कढे रुमाल,
और ये टिशु पपेर्स का अम्बार


आज इस थोडे से वक्त में
मेरे बीते वक्त ने,
आज के वक्त को निष्फल कर दिया।

आज तक यही सुना था


वक्त कभी रुकता नहि
वक्त के साथ चलो
मेर वक्त भी अयेगा
बुरा वक्त चला जायेगा

आज वक्त मिला तो जाना,
वक्त तो वहीं  है जहा था
ये तो मै ही थी
ये तो मै ही थी , जो दौडती रही रेगिस्तान की मरिचिका के पीछे

आज वक्त मिला तो जाना
क्या इसी का नाम है पाना?

जब हाथ मे है आना
पर बाजार मे नहीं है दाना

परिवार के लिये नहीं   था वक्त
और दोस्त बनाये अन्गिनत

आज वक्त मिला तो जाना

कि आज तक तो सिर्फ आलिशान मकान बनाये थे
वो घर तो आज बने है

जहा मुझ से  हाथ मिलाते डरने वाले लोग नहीं
मेरे अपने है

आज वक्त मिला तो
ढूढा बीते दिनो का खजाना

और फिर जाना कि
ये रोना, ये रुलाना,
यू उलझना , यू उलझाना
ये आलोचना ये उल्हाना

सब छोड दो ना
और जो मैने किया

ये पढना य़े लिखना
यू हंसना , यू मुस्कुरान

ये सा
धना ये अराधना
ये समझना, ये समझाना

ये धोना ये पोछना
वो तुम भी करो ना

"Delhi Dehali " By Dr. Madhvi Mohindra



                                                  

मेरी दिल्ली के जवां सीने पर
तारीखी मीनारों की कतारें थी रवां

खेंच दी किसने ये एक और नफरत ए मीनार
उन दिलों और मीनारों के मयां

किसने फूलों से कहा तुम न बहारों से मिलो
किसने कलियों से तबस्सुम का चलन छीन लिया

किसकी बेरहम सियासत ने उठा कर खंजर
दिलवालों की दिल्ली का जिगर चीर दिया

कितनी हसरत से इंडिया गेट की दीवारें तकती  हैं
कितने पृथ्वीराज और विक्रमादित्य का बलिदान छिपा था इसमें

ग़ालिब की ग़ज़ल और गंगा ए जमुनी तज़ीब की कसम
कितने फनकारों का इश्क ए बयान छिपा था इसमें

कितने चिराग थे जो बेनूर घरोंदों में जले
कितने ज़र्रे थे , जो तारों से हमआगोश हुए

                                           कितनो के तस्सबुर का ख्वाब है                                                                                                                                                                वो
ग़ालिब की गालिया और चांदनी चौक की बत्तियां

पर यह जंतर - मंतर , लाल किला और यह निशान ए मंज़िल
अपनी उस ज़द  ज़हद की मिसाल तो नहीं

उफ़ यह मोमबत्तियों की कतारें , ये जनाज़ों का जुलूस
अपनी सदियों की ग़ुलामी की दवा तो नहीं ।

Wednesday, February 19, 2020

मै निर्भया हूँ

                           


मै निर्भया हूँ.
मैं,  गुनहगार हूँ !
इसकी उसकी आपकी  सबकी !

हाँ हाँ  मै गुनहगार हूँ उस माँ की ,
जिसकी कोख से मैंने जन्म लिया

मै गुनहगार हूँ उस पिता की
जिसकी उंगली पकड़ कर चलना सीखा

गुनहगार हूँ उस भाई की
जिसकी कलाई को मैंने सदा के लिए  सूना छोड़ दिया 

गुनहगार हूँ मै उस दोस्त की
जिसे अपने गुनाह में मैंने भागिदार कर लिया

पर मैं  कहाँ ऐसी थी?
 मै भी तो इसके उसकेआपके  सभी के जैसी थी 

आँखों में देखे उन  सपनों को पूरा करना चाहती थी 
एक ऊँची उड़ान से आसमान छूना चाहती थी

अपने पापा के थके हाथों को सहारा देना चाहती थी
अपनी बूढ़ी माँ की आँखों की ज्योति बनाना चाहती थी

लेकिन मेरे  गुनाहों ने
सब तबाह कर दिया

मेरे जुर्म की काली आंधी ने
आलोकित ज्योति को अंधकार में डुबो दिया

मेरे गुनाह अनंत है
मेरे गुनाह अक्षम्य है


दरिंदो की दरिंदगी का सामना करने का गुनाह
आखरी सांस तक उन्हें चुनौती देने का गुनाह

झूठी बदनामी के डर को डराने का गुनाह
अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का गुनाह 

अपने और अपने जैसे पीड़िताओं  के लिए इन्साफ मांगने का गुनाह
अपने क्षक्त-विक्षत शरीर और आत्मा के साथ भी जीने की चाह का गुनाह
मैं गुनहगार हूँ ! इसकी उसकी ,आपकी,  सबकी !
तभी तो पिछले सात सालों से अपने गुनाहों की सज़ा भुगत रही हूँ 

कानून की किताब में मेरे बलात्कार का एक दिन दर्ज़ है
पर इस समाज की किताब में मेरे बलात्कार के  २५५५ दिन  दर्ज़ है 

मेरा  बलात्कार तो  हर बार हुआ ,
हर सड़क परहर कूचे पर
हर घर के टेलीविज़न पर
हर बार हुआ
बार बार हुआ

यह  सालों का लम्बा इंतज़ार
जहाँ मानवता को मरते देखा बार -बार


जानवरों के हितों के अघिकार
बलात्कारियों के मानवाधिकार
आतंकवादियों के मानवाधिकार
यहाँ तक की गैंगस्टर्स के शवाधिकार के
जुलूस और नारों की बीच एक मै ही
बेहद बेबस बेहद  लाचार
क्योंकि मै गुनहगार हूँ ,
इसकी उसकीआपकी सबकी

भूल गयी थीहां मैं बिलकुल भूल गयी थी 

कि सदियों से खींची जो यह लक्ष्मण रेखा है 
ये आज और भी गहरा गयी है
   
तब सतयुगी छली गयी
आज निर्भया छली गयी
कल कोई और छली जाएगी
 ये ग़लती आज की निर्भया की नहीं
हर युग में पैदा होने वाले रावण और दुर्योधन की है

 सीता जंगल में किसी पराये मर्द के  साथ थी
 द्रोपदी अकेली घर से बाहर थी 

१४ बरस बनवास काट कर भी सीता ने अग्नि परीक्षा दी
मेरी तो मौत के तो  साल  बाद भी लोगों ने हैवानियत की हदें पार कर दी

अब मैं थक गयी हूँ  खुद को निर्दोष साबित करते -करते
इस अंधे कानून से इंसाफ मांगते मांगते
मेरी भटकती रूह अब सोना चाहती है


बस रोक दो मुझे इन्साफ दिलाने की ये असफल कोशिशे
बुझा दो मेरे लिए ये जलती हुई ये चंद मोमबत्तिये

जो शायद कल मज़हबी नफरत में
किसी बस्ती को जला देने के  काम आये

लेकिन आज के  बाद कभी मुझ जैसी को निर्भया नाम मत देना
मैं मैं तो बहुत भयभीत हूँ  क्योंकि मैं गुनहगार हूँ

इसकी उसकी आपकी सबकी